#सुकून मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त और हर मासूम टहनी पर फलों का भार था देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया कल यही चेहरा था जो हर आईने पे भार था सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब एक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था सुकून कुछ चंद लम्हों का ......