लगा कि, कहीँ आज सूर्य खुद जागने के साथ किसी को जगाना तो नहीं भूल गया, कहीं इस सर्द ठंडी रात ने उनका शरीर शिथिल तो नहीं कर दिया, कहीं एक अँधेरे ने मुझसे मेरा वो लम्हा हमेशा के लिए तो नहीं छीन लिया, जिन लम्हों में उन बूढ़ी दादी को सजग , ठीक एक नई सवेर को मुस्कुराते हुए जैसे देखता था कहीं छीन तो नहीं लिया, मगर! नहीं वो बूढ़ी दादी हाथों में सुमन लिए पीतल का वही कलश जिसमें जल है, श्री चरणों में समर्पित होने के लिए लेकर चली आती दिखाई दी , और सच कहूँ तो मेरे हृदय की सुस्त पड़ रही साँसें फिर अपनी नियत गति से चलने लगीं। और मेरे प्रणाम! की आवाज़ सुनते ही दादी की अनमोल मुस्कान मुझ जिन्दा शक्स को , ठीक ठीक जिन्दा कर गयीं। ©Pràteek Siñgh बूढ़ी दादी 🙏