कह दे के देर ना हो जाए कहते-कहते, ये किनारा भी न छूट जाए बहते-बहते| फिर ज़ख्म खाने की आदत हो जाएगी, गर यूँ ही खामोश रहा तू सहते-सहते| ये किनारा भी न छूट जाए बहते-बहते… हुनर नहीं बस नवाज़ा है खुदा ने, लिखता हूँ ख्याल अपने यूँ ही बैठे-बैठे| ये किनारा भी न छूट जाए बहते-बहते… मुझे गिराना नामुमकिन तो नहीं था ‘अंकुर, मगर एक उम्र लगी मुझे ढ़हते-ढ़हते| कह दे के देर ना हो जाए कहते-कहते, ये किनारा भी न छूट जाए बहते-बहते| फिर ज़ख्म खाने की आदत हो जाएगी, गर यूँ ही खामोश रहा तू सहते-सहते| ये किनारा भी न छूट जाए बहते-बहते… हुनर नहीं बस नवाज़ा है खुदा ने,