Unsplash हश्र का दिन है आज, सुन मेरे हमदर्द जश्न मना। बांध सर से कफ़न आज, फिर से किस्मत को आज़मा। सुनो इंतहा हो गई है अब, ये ज़ुर्म सहा नहीं जाता। तुम्हारी बेरुखी का सितम , मुझे समझ ही नहीं आता। क्या गुनाह हुआ था मुझसे, जो मुझे चैन से सोने न दिया। उठा गई मैं अचानक जो, मेरी कब्र पर तुम्हारा पांव आया। मैं जान गंवाकर भी, तुम्हे पा न सकी कभी। हश्र ये हिज़्र की रात थी, मैं कभी बता न सकी। अब तो खुश हो तुम, मैं तुम्हारे साथ न रह सकी। हां सौत ले आए तुम, हश्र में मैं रकीब ला न सकी। ©आगाज़ #Book amit pandey Kamaal Husain