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दिन हर दिन खुद मै रोज मारता हूं हा मै पीएचडी करता

दिन हर दिन खुद मै रोज मारता हूं
हा मै पीएचडी करता हूं

तपती धूप में घर से आकर, अपना थैला रखता हूं
बेहिचक आहट सी तब एक मै सुनता हूं
उठ चल जा अब पानी ला दे, यही काम मै करता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं ।

अभी अपना कार्य प्रारंभ किया भी ना था
भूखे पेट पीसी स्टार्ट किया भी ना था
फिर किसी के प्याले में चाय जो मै भरता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं ।

तपती धूप या हो या बारिश जहा की
बढ़े कदम ना ज्येष्ठ दोपहर में
भूख मिटाने तब वरिष्ठ की, अपना डग में बढ़ता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं

सांझ ढले मन चंचल हो, थक कर तन जब ओझल हो
लंबी दूरी तय करके मै तब
नाश्ते का इंतजाम करता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं 


©रामवीर गंगवार
दिन हर दिन खुद मै रोज मारता हूं
हा मै पीएचडी करता हूं

तपती धूप में घर से आकर, अपना थैला रखता हूं
बेहिचक आहट सी तब एक मै सुनता हूं
उठ चल जा अब पानी ला दे, यही काम मै करता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं ।

अभी अपना कार्य प्रारंभ किया भी ना था
भूखे पेट पीसी स्टार्ट किया भी ना था
फिर किसी के प्याले में चाय जो मै भरता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं ।

तपती धूप या हो या बारिश जहा की
बढ़े कदम ना ज्येष्ठ दोपहर में
भूख मिटाने तब वरिष्ठ की, अपना डग में बढ़ता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं

सांझ ढले मन चंचल हो, थक कर तन जब ओझल हो
लंबी दूरी तय करके मै तब
नाश्ते का इंतजाम करता हूं
हां मै पीएचडी करता हूं 


©रामवीर गंगवार