मकानों के जंगल में कितने रिश्ते खोये है दूर हुये थे जो हमसे उनकी खातिर रोये है उन्हें एहसास न था कभी अपनों के दर्द का थे कभी जो अपने यहाँ आज पराये होये है मकानों