जो मेरी अंजुमन में जब तक ज़िक्र ना हो तुम्हारे नाम का, मरासिम-ए-ईश्क़ अपना बेनाम सा लगता है! जो लफ्ज़ों की ओट में झलके ना अक्श तुम्हारे नाम का, महफ़िल का हर एक कोना वीरां सा लगता है! जो मेरी अंजुमन में जब तक ज़िक्र ना हो तुम्हारे नाम का, मरासिम-ए-ईश्क़ अपना बेनाम सा लगता है! जो लफ्ज़ों की ओट में झलके ना अक्श तुम्हारे नाम का, महफ़िल का हर एक कोना वीरां सा लगता है!