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सिमट के जो मुट्ठी में था वो ख़्वाब, रेत सा फिसल गया

सिमट के जो मुट्ठी में था
वो ख़्वाब, रेत सा फिसल गया
जिस वक़्त की थी आरज़ू 'फलक'
वो,सामने से, यूँ निकल गया
जैसे,अज़नबी कोई रेहगुज़र
है हमकदम,मगर,हमदोस्त नहीं #पारस #ख़्वाब #हमदोस्त
सिमट के जो मुट्ठी में था
वो ख़्वाब, रेत सा फिसल गया
जिस वक़्त की थी आरज़ू 'फलक'
वो,सामने से, यूँ निकल गया
जैसे,अज़नबी कोई रेहगुज़र
है हमकदम,मगर,हमदोस्त नहीं #पारस #ख़्वाब #हमदोस्त