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लफ्ज़-ए-हयात पढ़ने का सलीका नहीं आया, ठोकरें खाकर

 लफ्ज़-ए-हयात पढ़ने का सलीका नहीं आया,
ठोकरें खाकर भी संभलने का सलीका नहीं आया,
हर मोड़ पर छल से छला गया हमारी शराफ़त को,
पूरे सफर में मगर, हमें किसी और को छलने का सलीका नहीं आया,
सुना है किसी और के इश्क़ में मसरूफ़ रहते हैं वो आजकल,
हमें तो इस दिल में किसी और को बसाने का सलीका नहीं आया।।

©रोहित
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