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उलझी हुई ज़िन्दगी, थका हुआ सा मैं, ख़ामोशियों में

उलझी हुई ज़िन्दगी, थका हुआ सा मैं,
ख़ामोशियों में डूबा, बेकरार सा मैं।

न कोई मंज़िल, न कोई सहारा मेरा,
हर मोड़ पर टूटा, बिखरा हुआ सा मैं।

मयकदे में भी सुकून न मिला कहीं,
हर जाम में दर्द का ज़ायका सा मैं।

जो था मेरा, वो भी मेरा न रहा,
अब तो ख़ुद से भी अजनबी सा मैं।

ए ज़िन्दगी, अब और क्या बाकी है,
या मिटा दे मुझे, या फिर ख़ामोश सा मैं। 

डॉ दीपक कुमार दीप





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उलझी हुई ज़िन्दगी, थका हुआ सा मैं,
ख़ामोशियों में डूबा, बेकरार सा मैं।

न कोई मंज़िल, न कोई सहारा मेरा,
हर मोड़ पर टूटा, बिखरा हुआ सा मैं।

मयकदे में भी सुकून न मिला कहीं,
हर जाम में दर्द का ज़ायका सा मैं।

जो था मेरा, वो भी मेरा न रहा,
अब तो ख़ुद से भी अजनबी सा मैं।

ए ज़िन्दगी, अब और क्या बाकी है,
या मिटा दे मुझे, या फिर ख़ामोश सा मैं। 

डॉ दीपक कुमार दीप





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