अक्षर अक्षर पहचानती हूं उसे, मेरी लिखावट सा जानती हूं उसे। मेरी लेखन का सार है, अपनी कलम की स्याही मानती हूं उसे। कोरे कागजों की चुप्पी है उसमे और आँखों में उसकी गहराई है। मैं उस बिन अधूरी हूं इतनी की अपनी डायरी ही मानती हूं उसे। मेरे आंखों में है चेहरा उसी का, मेरे शब्दों में है बातें उसकी, मेरे प्रेम का स्वरूप है वो हीं, न जाने इतना क्यों चाहती हूं उसे? धीमी बारिशों की तरह है वो प्रेम वही , और विरह भी वो अपने भीतर को खाली कर के खुद के भीतर ढालती हूँ उसे। अक्षर अक्षर पहचानती हूं उसे, मेरी लिखावट सा जानती हूं उसे। अक्षर अक्षर पहचानती हूं उसे, मेरी लिखावट सा जानती हूं उसे। मेरी लेखन का सार है, अपनी कलम की स्याही मानती हूं उसे। कोरे कागजों की चुप्पी है उसमे और आँखों में उसकी गहराई है। मैं उस बिन अधूरी हूं इतनी की