बोझिल सांसे ही अपनी उम्मीद जीती रही। हार कर वो टूटते हुए दूजी बांहों पर मरी।। अपनी ख्वाइशे जिंदादिली पर पलती रही। उनकी अजमाइशें बुस्दिली की आहें भरी।। वक्त बेवक्त आने से आंखों में चमक रही। एक वक्त के निकल जाने से बनी राहें हरी।। नुक्त कुछ छिपा कुछ खुला कर शर्माती रही। बेबस होकर जमात के व्यवहार चाहों परी।। ❤ प्रतियोगिता- 581 ❤आज की ग़ज़ल प्रतियोगिता के लिए हमारा विषय है 👉🏻🌹"बोझिल साँसे"🌹 🌟 विषय के शब्द रचना में होना अनिवार्य है I कृप्या केवल मर्यादित शब्दों का प्रयोग कर अपनी रचना को उत्कृष्ट बनाएं I