मजहब का, खिलवाड़ ना था जब धर्म ना था, उन्माद ना था इंसान बनकर आया था तू जब तेरे सीने में, दिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था खुद की भी तू, सुनता था तब ज़िंदा सपने, बुनता था सच छुपा नहीं था पन्नों में जब खुदके भीतर आदिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था मुर्दा चीज़ों से, प्यार तुझे ज़िंदा चीज़ों का, भार तुझे अब दोहराता है, जो बातें एक वक़्त था, तूभी काबिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था मेरी आंख से, आंख मिलाता तू गर झूठ में, ना सो पाता तू हर घर में कोई चौकीदार नहीं ना मुंसिफ ना मुअक्किल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था जब झट से, यकीन दिलाता ता जब तुझको, रोना आता था यूं साफ ना थी, सूरत तेरी जब तेरा चेहरा, झिलमिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था देख देख कर, खुदकी बस्ती बस बाहर रह गई, तेरी हस्ती देखना था, तुझे खुदके भीतर तू ही बस, इसके काबिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था #जाहिल #वत्स #vatsa #dsvatsa #illiteratepoet #hindipoetry #coronavirus #yqbaba मजहब का, खिलवाड़ ना था जब धर्म ना था, उन्माद ना था इंसान बनकर आया था तू जब तेरे सीने में, दिल था इंसान तु अच्छा, जाहिल था