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भोर की अँखुआती मयूख बन तेरे कपोल पर छन जाऊं, तू प

भोर की अँखुआती मयूख बन तेरे कपोल पर छन जाऊं, 
तू पुहुप की तरह चटककर मुझसे सहृदयता का संवलन कर !

साँझ की तिरोहित लालिमा बन तेरी गात में ढल जाऊं, 
तू छाया की तरह ओढ़कर मेरी विश्रभता का परिरंभन कर !

रैन की अतल सुप्ति बन तेरे स्वपन का नवरत बन जाऊं, 
तू सोम की तरह दिपदिपाकर अर्थ की रौनकता का सृजन कर !

अविच्युत तेरी आकर्षण आकृति में मित बन तुझमे अट जाऊं, 
तू श्रृंगार की तरह मुझे पहनकर अपनी सौष्ठवता का निध्यन कर!

©Viraaj Sisodiya
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