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वो "स्मृतियाँ" नागपंचमी की °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°

वो "स्मृतियाँ" नागपंचमी की
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           सावन माह में वर्षा की रिमझिम बूँदों के ताल के संग हर दिशा में 'हर हर महादेव' गूंज के मध्य, जीवन में मिश्री की तरह एक राग और भी घुलती है, जिसे "कजरी" कहा जाता है जो कि मुख्यतः उत्तर-प्रदेशीय लोकगीत है।

         सर्वप्रथम आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनायें! आज "नागपंचमी" पर्व के दिन फ़िर से बालपन की वो यादें ताज़ी हो गई, जिसे मैंनें कई साल पहले यादों के संदूक में रखकर ताला लगा दिया था। आज का दिन मेरे लिए बहुत ख़ास हुआ करता था और सबसे ख़ास मेरी माई यानि मेरी दादी के पूजन करनें की विधि।


पूरी कहानी अनुशीर्षक में पढ़ें......
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नागपंचमी के पूजन के लिए गाँव-जवार की सारी महिलाएं एक साथ गाँव के चारों दिशाओं में जाकर प्रत्येक देवी-देवताओं को गाय का दूध, लावा एवं चना चढ़ातीं थीं और मैं भी बिना रुके अपनी माई के आंचल को पकड़े हुए पूरे "गागरगढ़" की परिक्रमा कर डालती थी। जब पूजन संपन्न हो जाता तत्पश्चात ही रसोईघर में कोई भी व्यंजन बनानें की प्रक्रिया प्रारंभ होती और ये सिलसिला दिन ढ़लनें तक धुआंधार चलता। वहीं दूसरी ओर गाँव की सारी बहनें गुड्डे-गुड़िया बनातीं तो सारे भाई "बेहया के डंडे" को तोड़कर लातें और उसे सुंदर रंगों से सजातें।

दोपहर की बेला होते ही बन-सवर के सारी बहनें मेहंदी के बूटों से सजे हाथों में, भिगोये हुए चनें और बनाई गई गुड्डे-गुड़ियों से भरी मऊनी यानि छोटी टोकरी लेकर एक साथ कजरी गाते हुए घर से निकलतीं तो गाँव के सारे भाई अपनें रंगीन सज्जा वाले डंडे को थामें हुए अपनीं बहनों को चिढ़ाते हुए और बस कुछ इसी तरह हँसी-ठिठोलियों के संग सरयू घाट तक हम कब पहुंच जातें समय का पता ही नहीं चलता था।

घाट पर पहुंचते ही सब सरयू मईया को प्रणाम करतें फ़िर सारे भाई नदी में कूद जातें और बहनें जैसे ही "गुड्डे-गुड़ियों" को नदी में फेंकतीं, सभी जोर-जोर से डंडे से उन पर वार करतें। गुड्डे-गुड़िया पीटनें के बाद सब अपनें चनें को एक दूसरे के टोकरी में डालतें और हर कोई प्रसाद स्वरुप उसको ग्रहण करता था, लेकिन एक शर्त थी कि पहला दाना सबको चबाकर नहीं खाना था बल्कि निगलना पड़ता था जो आज तक हमसे तो न हो पाया। बस कुछ इसी तरह सभी लोग घर पहुंच जातें थें और झूले की पेंग के साथ कजरी गीत से सारा गाँव गूंजमान हो उठता।
वो "स्मृतियाँ" नागपंचमी की
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           सावन माह में वर्षा की रिमझिम बूँदों के ताल के संग हर दिशा में 'हर हर महादेव' गूंज के मध्य, जीवन में मिश्री की तरह एक राग और भी घुलती है, जिसे "कजरी" कहा जाता है जो कि मुख्यतः उत्तर-प्रदेशीय लोकगीत है।

         सर्वप्रथम आप सभी को नागपंचमी की हार्दिक शुभकामनायें! आज "नागपंचमी" पर्व के दिन फ़िर से बालपन की वो यादें ताज़ी हो गई, जिसे मैंनें कई साल पहले यादों के संदूक में रखकर ताला लगा दिया था। आज का दिन मेरे लिए बहुत ख़ास हुआ करता था और सबसे ख़ास मेरी माई यानि मेरी दादी के पूजन करनें की विधि।


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नागपंचमी के पूजन के लिए गाँव-जवार की सारी महिलाएं एक साथ गाँव के चारों दिशाओं में जाकर प्रत्येक देवी-देवताओं को गाय का दूध, लावा एवं चना चढ़ातीं थीं और मैं भी बिना रुके अपनी माई के आंचल को पकड़े हुए पूरे "गागरगढ़" की परिक्रमा कर डालती थी। जब पूजन संपन्न हो जाता तत्पश्चात ही रसोईघर में कोई भी व्यंजन बनानें की प्रक्रिया प्रारंभ होती और ये सिलसिला दिन ढ़लनें तक धुआंधार चलता। वहीं दूसरी ओर गाँव की सारी बहनें गुड्डे-गुड़िया बनातीं तो सारे भाई "बेहया के डंडे" को तोड़कर लातें और उसे सुंदर रंगों से सजातें।

दोपहर की बेला होते ही बन-सवर के सारी बहनें मेहंदी के बूटों से सजे हाथों में, भिगोये हुए चनें और बनाई गई गुड्डे-गुड़ियों से भरी मऊनी यानि छोटी टोकरी लेकर एक साथ कजरी गाते हुए घर से निकलतीं तो गाँव के सारे भाई अपनें रंगीन सज्जा वाले डंडे को थामें हुए अपनीं बहनों को चिढ़ाते हुए और बस कुछ इसी तरह हँसी-ठिठोलियों के संग सरयू घाट तक हम कब पहुंच जातें समय का पता ही नहीं चलता था।

घाट पर पहुंचते ही सब सरयू मईया को प्रणाम करतें फ़िर सारे भाई नदी में कूद जातें और बहनें जैसे ही "गुड्डे-गुड़ियों" को नदी में फेंकतीं, सभी जोर-जोर से डंडे से उन पर वार करतें। गुड्डे-गुड़िया पीटनें के बाद सब अपनें चनें को एक दूसरे के टोकरी में डालतें और हर कोई प्रसाद स्वरुप उसको ग्रहण करता था, लेकिन एक शर्त थी कि पहला दाना सबको चबाकर नहीं खाना था बल्कि निगलना पड़ता था जो आज तक हमसे तो न हो पाया। बस कुछ इसी तरह सभी लोग घर पहुंच जातें थें और झूले की पेंग के साथ कजरी गीत से सारा गाँव गूंजमान हो उठता।