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शीर्षक: हिंदी घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम

शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भविष्य अब तो, अस्थियां ये जम रही,
 थी कभी गरिमामयी में, हो चली हूं अब गवारू
भेद अपनों ने किया तो, दुर्दशा कैसे सुधारू,
लुप्त होने की आशंका, मन से मैं कैसे उतारू
और बन गई उपेक्षिता मैं,सत्ता ये कैसे सवारू,
खानापूर्ति रह न जाऊं, गुम न हो उपलब्धियाँ,
न मनाए यूं ही मेरी, व्यर्थ की जयंतीयाँ

संस्कृति की प्राण थी कल तक, आज विषय में सीमित हुई
महता केवल इतनी मेरी, मातृभाषा के निमित्त हुई
 रुप रंग भी देश का बदला,बदल गई संस्कृति भी
 बदल गई अस्तित्व भी मेरी, मिटी पुरानी प्रीति भी
 अल्पसंख्यक सा हाल हमारा,हिंदी दिवस है आरक्षण
 कल तक जिसकी वाणी में,गाया करता था जन जन
 विश्व में तीसरी सबसे अधिक,बोली जाने वाली भाषा हूँ
राष्ट्र की भाषा बनी न अबतक,इसके लिए हताशा हूँ
देशप्रेम के धुन से सृजित, जन गण मन की गान हूँ मैं
कृषक और मजदूर ही नहीं, सबके लिए समान हूँ मैं
वंचित मुझको बना रहे क्यूँ, देश की ही पहचान हूँ मैं
विविधता में एकता हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं,
माता कैसे हुई परायी, इससे तो अनजान हूँ मैं
 अपनी ही धरती पर देखो, हिंदी दिवस की मेहमान हूँ मैं,
'भूल गए क्यूं हिंदुस्तानी, इनका ही सम्मान हूँ मैं,
 अनुभूति की अभिव्यक्ति हूँ, फिर भी नहीं महान हूँ मैं
विवेकानंद या राम मोहन राय, के संघर्षों की निशान हूँ मैं
कल की अंशुमान न शायद, ढलता बस अवसान हूँ मैं
भाषायी विच्छेद देखकर, सचमुच ही हैरान हूँ मैं
विविध बोलियों की संगम हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं

©Priya Kumari Niharika शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भविष्य अब तो, अस्थियां ये जम रही,
 थी कभी गरिमामयी में, हो चली हूं अब गवारू
भेद अपनों ने किया तो, दुर्दशा कैसे सुधारू,
लुप्त होने की आशंका, मन से मैं कैसे उतारू
शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भविष्य अब तो, अस्थियां ये जम रही,
 थी कभी गरिमामयी में, हो चली हूं अब गवारू
भेद अपनों ने किया तो, दुर्दशा कैसे सुधारू,
लुप्त होने की आशंका, मन से मैं कैसे उतारू
और बन गई उपेक्षिता मैं,सत्ता ये कैसे सवारू,
खानापूर्ति रह न जाऊं, गुम न हो उपलब्धियाँ,
न मनाए यूं ही मेरी, व्यर्थ की जयंतीयाँ

संस्कृति की प्राण थी कल तक, आज विषय में सीमित हुई
महता केवल इतनी मेरी, मातृभाषा के निमित्त हुई
 रुप रंग भी देश का बदला,बदल गई संस्कृति भी
 बदल गई अस्तित्व भी मेरी, मिटी पुरानी प्रीति भी
 अल्पसंख्यक सा हाल हमारा,हिंदी दिवस है आरक्षण
 कल तक जिसकी वाणी में,गाया करता था जन जन
 विश्व में तीसरी सबसे अधिक,बोली जाने वाली भाषा हूँ
राष्ट्र की भाषा बनी न अबतक,इसके लिए हताशा हूँ
देशप्रेम के धुन से सृजित, जन गण मन की गान हूँ मैं
कृषक और मजदूर ही नहीं, सबके लिए समान हूँ मैं
वंचित मुझको बना रहे क्यूँ, देश की ही पहचान हूँ मैं
विविधता में एकता हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं,
माता कैसे हुई परायी, इससे तो अनजान हूँ मैं
 अपनी ही धरती पर देखो, हिंदी दिवस की मेहमान हूँ मैं,
'भूल गए क्यूं हिंदुस्तानी, इनका ही सम्मान हूँ मैं,
 अनुभूति की अभिव्यक्ति हूँ, फिर भी नहीं महान हूँ मैं
विवेकानंद या राम मोहन राय, के संघर्षों की निशान हूँ मैं
कल की अंशुमान न शायद, ढलता बस अवसान हूँ मैं
भाषायी विच्छेद देखकर, सचमुच ही हैरान हूँ मैं
विविध बोलियों की संगम हूँ, जीता हिंदुस्तान हूँ मैं

©Priya Kumari Niharika शीर्षक: हिंदी
 घूंट रही है श्वास मेरी धड़कने भी थम रहीं,
 धीरे धीरे सच कहूँ तो भूमिका भी कम रही,
देखकर ये हाल अपना, आँख मेरी नम रही,
सोचकर भविष्य अब तो, अस्थियां ये जम रही,
 थी कभी गरिमामयी में, हो चली हूं अब गवारू
भेद अपनों ने किया तो, दुर्दशा कैसे सुधारू,
लुप्त होने की आशंका, मन से मैं कैसे उतारू