जीवन पथ पर चलते चलते निकल गये है दुर बहुत पीछे मुड़कर जब देखा तो सब छुट गया मुझसे अब तो स्नेह भरा सागर छुटा मां की ममता की छुटी गगरी बहन के धागे का नेह कहीं तो छुट गई अपनी नगरी पिता का आत्मबल छुटा भाई की छुटी मजबुती मित्रों का हौंसला छुटा तो छुट गई अपनी ही तुती समाज का बंधन छुटा परिवार की छुटी अनुभुति अपनी मिट्टी का रंग छुटा तो छुटी अपनों की आजादी अब क्या खोजुं और क्या पाऊं कुछ भी संभव नहीं जमाने मे दुर बहुत मैं निकल गया अब क्या होगा पछताने में।।