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पिता *स्मृतियों के झरोखों से* ____________________

पिता *स्मृतियों के झरोखों से* ______________________
कहां गये बगिया के माली?
गुमसुम है फूलों की डाली! 
सूना सूना है घर आंगन 
कच्ची माटी की दीवारें
तुम्हें पुकारे ये मन पावन
रंभाती रहती है गइया
राह देखती कबसे मइया
आती नहीं तुम्हारी पाती
हो जाती है छलनी छाती
कहते थे आओगे जल्दी
हाथ बहन के दोगे हल्दी
लढिया का वह टूटा पहिया
जिस पर बैठा छोटा भइया
याद बहुत करती है माटी
बचपन की वह हल्दी घाटी
वीर शिवाजी राणा बनकर
चलते थे हम कितना तनकर
एक बार जब छोटा था तो
कंधे पर बैठाया हमको
निकल गये मीलों पैदल ही
कैसा खेल खिलाया हमको
काश लौटकर तुम आ जाते
करते जी भर खुलकर बातें
छोटे पर कुछ भान नहीं था
भले बुरे का ज्ञान नहीं था
आ जाओ अब बड़ा हो गया
पैरों पर मैं खड़ा हो गया।
खुशियाँ तुम्हें नहीं दे पाया
जो मांगा वह मैंने पाया।
जो भी हूँ आशीष तुम्हारा
चरणों में यह शीश हमारा
घर के हर चौखट दरवाजे
देते हैं तुमको आवाज़ें
दूर गये हो द्वार है खाली
देहरी पर बैठी महतारी
खाली है पूजा की थाली 
तुम बिन सूनी है दीवाली
चूल्हा चौका राह निहारे
याद करे यह चकिया गाली।
क्योंकर आखिर रूठे हमसे
नेह बहुत करते थे सबसे
तनिक नहीं देते थे माफी
सबको डांट पिलाते काफी।
आ जाओ फिर गले लगाने
मेरी गलती पर चिल्लाने
कोई नहीं हमें कुछ कहता
बस अपनी ही कहता रहता।
आंखों में हैं बहते आंसू
क्षमा करो हैं कहते आंसू।
आ जाओ एक बार सही
जाने वाले दूर कहीं!
प्रदीप वैरागी शाहजहांपुरी ,राष्ट्रवादी युवा रचनाकार(सर्वाधिकार सुरक्षित )
पिता *स्मृतियों के झरोखों से* ______________________
कहां गये बगिया के माली?
गुमसुम है फूलों की डाली! 
सूना सूना है घर आंगन 
कच्ची माटी की दीवारें
तुम्हें पुकारे ये मन पावन
रंभाती रहती है गइया
राह देखती कबसे मइया
आती नहीं तुम्हारी पाती
हो जाती है छलनी छाती
कहते थे आओगे जल्दी
हाथ बहन के दोगे हल्दी
लढिया का वह टूटा पहिया
जिस पर बैठा छोटा भइया
याद बहुत करती है माटी
बचपन की वह हल्दी घाटी
वीर शिवाजी राणा बनकर
चलते थे हम कितना तनकर
एक बार जब छोटा था तो
कंधे पर बैठाया हमको
निकल गये मीलों पैदल ही
कैसा खेल खिलाया हमको
काश लौटकर तुम आ जाते
करते जी भर खुलकर बातें
छोटे पर कुछ भान नहीं था
भले बुरे का ज्ञान नहीं था
आ जाओ अब बड़ा हो गया
पैरों पर मैं खड़ा हो गया।
खुशियाँ तुम्हें नहीं दे पाया
जो मांगा वह मैंने पाया।
जो भी हूँ आशीष तुम्हारा
चरणों में यह शीश हमारा
घर के हर चौखट दरवाजे
देते हैं तुमको आवाज़ें
दूर गये हो द्वार है खाली
देहरी पर बैठी महतारी
खाली है पूजा की थाली 
तुम बिन सूनी है दीवाली
चूल्हा चौका राह निहारे
याद करे यह चकिया गाली।
क्योंकर आखिर रूठे हमसे
नेह बहुत करते थे सबसे
तनिक नहीं देते थे माफी
सबको डांट पिलाते काफी।
आ जाओ फिर गले लगाने
मेरी गलती पर चिल्लाने
कोई नहीं हमें कुछ कहता
बस अपनी ही कहता रहता।
आंखों में हैं बहते आंसू
क्षमा करो हैं कहते आंसू।
आ जाओ एक बार सही
जाने वाले दूर कहीं!
प्रदीप वैरागी शाहजहांपुरी ,राष्ट्रवादी युवा रचनाकार(सर्वाधिकार सुरक्षित )