शाम में ढलते हुए, बेवजह चलते हुए, दोतरफा पिघलते हुए, मैंने जाना कि टूटता हुआ असमान फटती हुई धरती अंत के अरमान के लिहाज़ से भी परती है! जिंदगी कई बार मरके भी नहीं मरती है! सिकुड़े हुए शौक, छाँटी हुई जरूरतें, कभी-कभी मोह से, कभी-कभी बिछोह से, सिर कटे राहु सी अमर हो जाती है और हम पाते हैं कि स्मृतियां जन्म-जन्म की ज्यों दिन के प्रहर हो जाती है! युग छोटा हो जाता है, आदि-अंत का ज्ञान खोटा हो जाता है! सिरकटा