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सम्पूर्ण सृष्टि एक फलदार वृक्ष की तरह ही होता है।

सम्पूर्ण सृष्टि एक फलदार वृक्ष की तरह ही होता है।
जिस समय फल पकने का समय आ जाता है।
 उसी वृक्ष की समस्त शाखाओं के मीठे - मीठे फलों,
भरपुर आनन्द उठाने के लिए जल्दी ही भागे आते हैं,
जल्दी ही जैसे ही वृक्ष के समस्त फल खत्म हो जातें हैं,
समस्त सृष्टि वासी वृक्ष की जाति तक नहीं पुछते है,
अर्थात स्वार्थ ही स्वार्थ हर पल हर जगह स्वार्थ  रूप ही है।
स्वार्थी की भावना की नींव रखी है सम्पूर्ण सृष्टि।
जो कि सृष्टि का उत्पादन वाला निस्वार्थ ‌भाव वाला‌ है।

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