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"जींवन का विकास"------ जो कुछ हमारे जीवन में घटित

"जींवन का विकास"------
 जो कुछ हमारे जीवन में घटित होता है उसका भावनात्मक प्रारूप हमारे आभा-मण्डल में विद्यमान रहता है। सूक्ष्म स्तर पर आभा-मण्डल वैसा ही बना रहता है। चूंकि स्थूल के परिवर्तन धीरे होते हैं अत: समय के साथ ही वे परिलक्षित होते हैं। सूक्ष्म में परिवर्तन निरन्तर गतिमान रहता है। अतिसूक्ष्म तक इसका विस्तार होता है। हर प्राणी और पदार्थ का आभा-मण्डल सृष्टि से जुड़ा है। वह दूर-दूर तक सूक्ष्म रूप से व्याप्त है, अत: हर एक प्राणी एक-दूसरे से प्रभावित होता ही है चाहे दूसरा चुपचाप पास ही बैठा रहे। ऊर्जा का आदान-प्रदान तो वहां भी होता ही रहता है। भावनाओं को प्रभावित करने का क्रम तो बना ही रहता है। चीनी विद्वान एवं दार्शनिक ताओ ने लिखा है कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है। सृष्टि या प्रकृति के इस आदर्श को नकारा नहीं जा सकता। इसी में सृष्टि के विकास का बीज छिपा हुआ है।

यह परिवर्तन हम सब मिलकर लाते हैं। हमारी ऊर्जाओं का आदान-प्रदान ही परिवर्तन का मूल कारण है। हम भावनाओं को भले ही निजी सम्पत्ति मानें, किन्तु यह सत्य है कि हमारी भावनाओं को हमारा सम्पूर्ण वातावरण, जड़-चेतन प्रभावित करता है। सब मिलकर एक-दूसरे को परिवर्तित करते हैं, इसीलिए “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा का सही अर्थ समझा जाना आवश्यक है।

हमें आयु सूर्य से मिलती है। अन्न चन्द्रमा से मिलता है। सोम की कमी चन्द्रमा पूर्ण करता है। हमारा मन परमेष्ठि लोक से आया हुआ है। अर्थात हमारे जीवन में इन सबका नित्य जुड़ाव है, प्रभाव है। हमारी इच्छा, कामना, भावना इसी की अंग हैं। जैसे-जैसे हम ऊपरी स्तरों पर देखते हैं, इनका स्वरूप अतिसूक्ष्म होता चला जाता है, गतिमान होता चला जाता है।

हमारे भावों की तरंगें अंतरिक्ष में रहती हैं। सभी प्राणियों के भावों की तरंगें अंतरिक्ष में होने से अंतरिक्ष इन तरंगों का समुद्र बन जाता है। ये मिश्रित तरंगें सबको प्रभावित करेंगी और सब मिलकर इन तरंगों के मिश्रण को प्रभावित करेंगे। इस बात से किसी देश अथवा भू-भाग की संस्कृति का महत्व भी समझा जा सकता है। एक व्यक्ति को आने वाला क्रोध दूसरे व्यक्ति के क्रोध की तरंगों को बढ़ा देता है और उनके आपसी व्यवहार का निर्घारण करता है। सही प्रभाव सद्भाव की तरंगों का होता है। ऋषि-मुनियों के समीप सभी शांत क्यों दिखाई पड़ते हैं- हम समझ सकते हैं। यही कारण है कि रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिए प्राकृतिक सौन्दर्यपूर्ण स्थानों पर रहने की सलाह दी जाती है। प्रकृति की इस अद्भुत उपचार क्षमता का कारण भी सूक्ष्म भाव तरंगें ही हैं। वन्य जीव, पशु-पक्षी, पर्वत, नदी-नाले, पेड़-पौधे सभी की भाव-तरंगों का मिश्रण हमें प्रसन्न एवं निरोगी बनाये रखता है।
"जींवन का विकास"------
 जो कुछ हमारे जीवन में घटित होता है उसका भावनात्मक प्रारूप हमारे आभा-मण्डल में विद्यमान रहता है। सूक्ष्म स्तर पर आभा-मण्डल वैसा ही बना रहता है। चूंकि स्थूल के परिवर्तन धीरे होते हैं अत: समय के साथ ही वे परिलक्षित होते हैं। सूक्ष्म में परिवर्तन निरन्तर गतिमान रहता है। अतिसूक्ष्म तक इसका विस्तार होता है। हर प्राणी और पदार्थ का आभा-मण्डल सृष्टि से जुड़ा है। वह दूर-दूर तक सूक्ष्म रूप से व्याप्त है, अत: हर एक प्राणी एक-दूसरे से प्रभावित होता ही है चाहे दूसरा चुपचाप पास ही बैठा रहे। ऊर्जा का आदान-प्रदान तो वहां भी होता ही रहता है। भावनाओं को प्रभावित करने का क्रम तो बना ही रहता है। चीनी विद्वान एवं दार्शनिक ताओ ने लिखा है कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है। सृष्टि या प्रकृति के इस आदर्श को नकारा नहीं जा सकता। इसी में सृष्टि के विकास का बीज छिपा हुआ है।

यह परिवर्तन हम सब मिलकर लाते हैं। हमारी ऊर्जाओं का आदान-प्रदान ही परिवर्तन का मूल कारण है। हम भावनाओं को भले ही निजी सम्पत्ति मानें, किन्तु यह सत्य है कि हमारी भावनाओं को हमारा सम्पूर्ण वातावरण, जड़-चेतन प्रभावित करता है। सब मिलकर एक-दूसरे को परिवर्तित करते हैं, इसीलिए “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा का सही अर्थ समझा जाना आवश्यक है।

हमें आयु सूर्य से मिलती है। अन्न चन्द्रमा से मिलता है। सोम की कमी चन्द्रमा पूर्ण करता है। हमारा मन परमेष्ठि लोक से आया हुआ है। अर्थात हमारे जीवन में इन सबका नित्य जुड़ाव है, प्रभाव है। हमारी इच्छा, कामना, भावना इसी की अंग हैं। जैसे-जैसे हम ऊपरी स्तरों पर देखते हैं, इनका स्वरूप अतिसूक्ष्म होता चला जाता है, गतिमान होता चला जाता है।

हमारे भावों की तरंगें अंतरिक्ष में रहती हैं। सभी प्राणियों के भावों की तरंगें अंतरिक्ष में होने से अंतरिक्ष इन तरंगों का समुद्र बन जाता है। ये मिश्रित तरंगें सबको प्रभावित करेंगी और सब मिलकर इन तरंगों के मिश्रण को प्रभावित करेंगे। इस बात से किसी देश अथवा भू-भाग की संस्कृति का महत्व भी समझा जा सकता है। एक व्यक्ति को आने वाला क्रोध दूसरे व्यक्ति के क्रोध की तरंगों को बढ़ा देता है और उनके आपसी व्यवहार का निर्घारण करता है। सही प्रभाव सद्भाव की तरंगों का होता है। ऋषि-मुनियों के समीप सभी शांत क्यों दिखाई पड़ते हैं- हम समझ सकते हैं। यही कारण है कि रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिए प्राकृतिक सौन्दर्यपूर्ण स्थानों पर रहने की सलाह दी जाती है। प्रकृति की इस अद्भुत उपचार क्षमता का कारण भी सूक्ष्म भाव तरंगें ही हैं। वन्य जीव, पशु-पक्षी, पर्वत, नदी-नाले, पेड़-पौधे सभी की भाव-तरंगों का मिश्रण हमें प्रसन्न एवं निरोगी बनाये रखता है।