#OpenPoetry मेरी चाहत काश पर होता मुझे भी मैं भी उड़ता नील गगन मे, हवा मे घूमता घटा को चुमता रहता यूहिं मगन मे | हो जाता मैं यहाँ का शहंशाह होते नौकर चाकर बंगला और बेगम, सारा जहाँ मेरे कदमो मे होता पर ना होता कोई गम | छू लेता मैं हरेक उंचाइयों को होके दुनिया से बेखबर , पा लेता मैं हरेक मंजिल किंतु पांव होते मेरे धरा पर | बस इतनी सी है चाहत मेरी हो मेरा हर ख्वाइश पुरा , हर सपना सच हो मेरा ना रहे कोई तमन्ना अधूरा | एक और कृपा करना मेरे खुदा , ना हौउँ कभी अपनो से जुदा | कभी ना भुलुं अपनी परछाई को , ना मैं तजुं माता पिता गुरू और सांई को | अवध किशोर पंडा