नजरों से गिरतें हैं लोग आजकल ठोकरों की गलफैमी अब गुप्त हो रहें है तुच्छ समाज छुद्र मानसिकता जिनकी स्वयं में वो शूरवीर हो रहें हैं जीते जी यूं रिश्ते सब दिखावे के मरते ही शख्सियत की चिर हो रहें हैं और असली रंग तो बदलते हैं इंसा यहां गिरगिट पर इल्ज़ाम तो बेवजह हो रहें हैं भाग्य की कलम तो एक ही है फ़र्क तो कर्मों की चुनौती में हो रहे हैं यूं तो कर लू आत्मविश्वास कुबूल मैं पर इंद्रियों पर खड़े सवाल हो रहे हैं देख अहम आईने में हस्ते हैं परिंदे जिनकी कोई नीव नहीं वो नफ़रत की बीज बो रहे हैं मानव की ज़िंदगी चंद दिनों की मगरूरी घर पराया पर पहरेदारी ताउम्र हो रहे हैं 💙 ©siya pandey विनाश काले विपरित बुद्धि....💯✨....!!