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जिंदगी पहले की तरह सस्ती नहीं रही न तो इसके रास्ते

जिंदगी पहले की तरह सस्ती नहीं रही
न तो इसके रास्ते और न इसके पहलू
हर क्षण हर पहर जैसे काटने को दौड़ता
है खामोशियां जैसे कुछ कह रही हो
अशांत मन जैसे हर समय कुछ ढूंढ रहा हो
और इन सबके बीच एक ठहरा वक्त
जो बस बेजुबान होना चाहता है जैसे
उसे आगे जाने की कोई आरजू ही न हो
और फिर आता है वो आदमी जो 
इनमे ख़ुद को ढालने के बाद खुशियां
नहीं तलाशता पर वो तलाशता है 
एक वक्त सिर्फ खुद से साथ आजीवन
जीने के लिए जिसमे कोई सा भी
हस्तक्षेप न हो ।

©–Varsha Shukla
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