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कौन, कब, कैसे, कहां, क्या, कह गया। मैंने उसको चाहा

कौन, कब, कैसे, कहां, क्या, कह गया।
मैंने उसको चाहा, बस कहना रह गया।।

मेरा जिस्म तो किसी खानाबदोश का है।
इस घाट से उस घाट तक यूंहीं बह गया।।

दिए ज़ख़्म उसने पर मरहम भी लगाया।
बस यही सोचकर मैं सब कुछ सह गया।।

यूं दरबदर भटकना तो मेरी आदत नहीं।
मैं जहां गया, वहां का, होकर रह गया।।

उससे दूर होकर ज़्यादा कुछ नहीं हुआ।
बस कई ख़्वाब और इक मक़ां ढह गया।।

©Shivank Shyamal कौन, कब, कैसे, कहां, क्या, कह गया।
मैंने उसको चाहा, बस कहना रह गया।।

मेरा जिस्म तो किसी खानाबदोश का है।
इस घाट से उस घाट तक यूंहीं बह गया।।

दिए ज़ख़्म उसने पर मलहम भी लगाया।
बस यही सोचकर मैं सब कुछ सह गया।।
कौन, कब, कैसे, कहां, क्या, कह गया।
मैंने उसको चाहा, बस कहना रह गया।।

मेरा जिस्म तो किसी खानाबदोश का है।
इस घाट से उस घाट तक यूंहीं बह गया।।

दिए ज़ख़्म उसने पर मरहम भी लगाया।
बस यही सोचकर मैं सब कुछ सह गया।।

यूं दरबदर भटकना तो मेरी आदत नहीं।
मैं जहां गया, वहां का, होकर रह गया।।

उससे दूर होकर ज़्यादा कुछ नहीं हुआ।
बस कई ख़्वाब और इक मक़ां ढह गया।।

©Shivank Shyamal कौन, कब, कैसे, कहां, क्या, कह गया।
मैंने उसको चाहा, बस कहना रह गया।।

मेरा जिस्म तो किसी खानाबदोश का है।
इस घाट से उस घाट तक यूंहीं बह गया।।

दिए ज़ख़्म उसने पर मलहम भी लगाया।
बस यही सोचकर मैं सब कुछ सह गया।।