बाबा ने विदा किया, तो...बाबुल का घर, मायका बन गया, है जहाँ था जनम लिया, खेला-कूदा..था हँसी खुशी बचपन गुजारा, कभी माँ की लाडो तो कभी बाबा की परी बनी, भैया संग लड़कर..उसका दुलार बनी, हुआ जो ब्याह...घर पिया..पहुँची वो, डोली में बैठ..हाथों में मेंहदी रचा, पैरों में लाल महावर संग पायल सजा, माथे पर माँग टीका..माँग में सिंदूर लगा, अरमानों को सजों..नैनों मे सपनों को पिरो, पलकों को वो..अपने भिगो, अब जहाँ था लिखा..जीना-मरना, डोली मे आकर पिया के कांधे पर अर्थी में जाना, ..वो ससुराल बन गया, सोच में बैठी थी वो..ये सोचने को, इन दोनों में.......घर,,,जो...मेरा था, वो कहाँ गया..? अस्तित्व था मेरा..दोनों से जुड़ा, एक जगह था जनम लेना मेरा, तो,,,,था दूँजी जगह मेरा मरना लिखा, एक स्त्री हूँ मै... कितना अजीब है न, जीने-मरने की जगह तो मिली, पर....घर मुझको मेरा नहीं मिला...।। -AK__Alfaaz.. लगभग सभी स्त्रियों का एक..प्रश्न रचना अनुशीर्षक मे भी, #मेरा_घर...? बाबा ने विदा किया, तो...बाबुल का घर, मायका बन गया,