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"गन्नू" अपना और बस बीते कुछ दिनों पहले जब विश्व मग

"गन्नू" अपना और बस बीते कुछ दिनों पहले जब विश्व मग्न था महाराज को घर में लाकर एक जगह देने को...उन्हीं बीते दिनों मेरे साथ कुछ अजीब हुआ...मुझे ऐसा लगा जैसे एक कोई छोटा सा हल्का लंबा सा बिंदु कहीं मेरे मष्तिस्क में कहीं से आया...एक प्रकाश पुंज सा...

फिर वो बिंदु धीरे धीरे बढ़ता गया...प्रकाश भी बढ़ता गया...फिर जब वो हल्का लंबा सा बिंदु मेरे मष्तिस्क में फ़ैल गया तब मुझे समझ आया की ये तो किसी गज की सूंड सा है...आश्चर्य कि केवल सूंड है गज का बाकी शरीर कहां है !...ना आंखें, ना कान, ना दांत ; केवल सूंड !...मैं बहोत डर गया...दिमाग का पहला काम इंसान को डराना ही होता है ना...

अब वो सूंड धीरे धीरे अपने प्रकाश के साथ मेरी आँखों, मेरे कानों, मेरी नासिकाओं, मेरे मुख, मेरे गले के रास्ते फेफड़ों से होते हुए मेरे दिल तक पहुंच गयी...जैसे ही उसने दिल को छुआ ! तो जैसे एक राहत आयी...दिल का तो काम ही डर दूर करना होता है, आराम पहुंचाना होता है...अब समझ आ चुका था कि तुम कोई नुकसान पहुंचाने की चीज़ नहीं हो...समझ चुका था मैं कि तुम तो " गन्नू " हो...समझ चुका था मैं की ईश्वर आने से पहले परीक्षा लेते हैं, थोड़ा डराते हैं और जो देता है उन्हें स्थान अपने ह्रदय में फिर वही उसका भय दूर कर रह जाते हैं वहीँ...

फिर मैंने स्थान दिया उन्हें और विशाल होने का मुझ में ही..चलते फिरते समाधिरत हो गया मैं...मेरे मस्तिष्क में, मेरीआँखों में, मेरी नासिकाओं में, मेरे कानों में, मेरी उंगलियों में, मेरे नखों में, मेरी इद्रियों में, मेरी शिराओं में, मेरी कोशिकाओं में और मेरे प्रत्येक अंग में जैसे उस सूंड का विस्तार हो चुका था...मैं ना नर रहा ना मादा ना ही किन्नर, न कोई कीट और ना ही कोई पशु...मैं मात्र एक सूंड हूं...
"गन्नू" अपना और बस बीते कुछ दिनों पहले जब विश्व मग्न था महाराज को घर में लाकर एक जगह देने को...उन्हीं बीते दिनों मेरे साथ कुछ अजीब हुआ...मुझे ऐसा लगा जैसे एक कोई छोटा सा हल्का लंबा सा बिंदु कहीं मेरे मष्तिस्क में कहीं से आया...एक प्रकाश पुंज सा...

फिर वो बिंदु धीरे धीरे बढ़ता गया...प्रकाश भी बढ़ता गया...फिर जब वो हल्का लंबा सा बिंदु मेरे मष्तिस्क में फ़ैल गया तब मुझे समझ आया की ये तो किसी गज की सूंड सा है...आश्चर्य कि केवल सूंड है गज का बाकी शरीर कहां है !...ना आंखें, ना कान, ना दांत ; केवल सूंड !...मैं बहोत डर गया...दिमाग का पहला काम इंसान को डराना ही होता है ना...

अब वो सूंड धीरे धीरे अपने प्रकाश के साथ मेरी आँखों, मेरे कानों, मेरी नासिकाओं, मेरे मुख, मेरे गले के रास्ते फेफड़ों से होते हुए मेरे दिल तक पहुंच गयी...जैसे ही उसने दिल को छुआ ! तो जैसे एक राहत आयी...दिल का तो काम ही डर दूर करना होता है, आराम पहुंचाना होता है...अब समझ आ चुका था कि तुम कोई नुकसान पहुंचाने की चीज़ नहीं हो...समझ चुका था मैं कि तुम तो " गन्नू " हो...समझ चुका था मैं की ईश्वर आने से पहले परीक्षा लेते हैं, थोड़ा डराते हैं और जो देता है उन्हें स्थान अपने ह्रदय में फिर वही उसका भय दूर कर रह जाते हैं वहीँ...

फिर मैंने स्थान दिया उन्हें और विशाल होने का मुझ में ही..चलते फिरते समाधिरत हो गया मैं...मेरे मस्तिष्क में, मेरीआँखों में, मेरी नासिकाओं में, मेरे कानों में, मेरी उंगलियों में, मेरे नखों में, मेरी इद्रियों में, मेरी शिराओं में, मेरी कोशिकाओं में और मेरे प्रत्येक अंग में जैसे उस सूंड का विस्तार हो चुका था...मैं ना नर रहा ना मादा ना ही किन्नर, न कोई कीट और ना ही कोई पशु...मैं मात्र एक सूंड हूं...