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मैं नारी हूं मैं कली नहीं फुलवारी हूं, कहते हो सम

मैं नारी  हूं
मैं कली नहीं फुलवारी हूं,
कहते हो सम्मान करोगे,
 मैं कहती हूं उस अपमान का कब हिसाब करोगे, 
 मैं डरती हूं, मैं उन आंखो से हर रोज गुजरती हूं,
 डर का साम्राज्य पैदा होता है कोई साया पीछा करता है,
मैं डरती हूं, सोचती हूं वह समय कब आएगा, जो मेरा कहलाएगा,
मैं नारी हूं।


मैं जब बाजार निकलती हूं, उन परछाइयों  के बीच से हर रोज गुजरती  हूं,
 मैं डरती हूं, अपने अस्तित्व की लड़ाई में कतरा -कतरा जलती हूं,
मैं उस समाज की तलाश में कुछ दूर निकला करती हूं,
देखती हूं, उन आँखो की साये से पूरा बाजार पटा रहता है,
कोई साया पीछा करता है, मैं डरती, मैं मरती, मैं कतरा -कतरा जलती हूं,
मैं नारी हूं,
 मैं कली  नहीं फुलवारी हूं।



 समाज की उन रूढ़ियों को मैं सहती हूं,
 आकांक्षाओं के उन पहाड़ों को मैं ढोती हूं,
मैं जब चौखट से बाहर निकलती हूं,
 पल्लू की एक दीवार मेरे सामने गिर जाती है,
 मेरी आत्मा तड़प जाती है, वह कहती है,
 समाज की इन असमानताओं को मुझे सहना होगा, मुझे जीना होगा, मुझे मरना होगा
 मैं नारी हूं,
 मैं कली नहीं फुलवारी हूं।


 मैं उस काले जिस्मफरोशी के बाजार में ढकेली जाती हूं,
 मैं तड़पाई जाती हूं, मैं सिसकाई जाती हूं, मैं जगह-जगह से चोटे खाती हूं,
 मैं रोती हूं, फिर अपने आंसुओं को मैं खुद ही पी जाती हूं,
 फिर अगला दिन आता है, मेरी आत्मा को तड़पाया जाता है,
 मैं उस संघर्ष में जुट जाती हूं, मैं चिल्लाती हूं,मैं सिसकती हूं।
 अंत में एक ऐसा समय आता है, मेरी आत्मा मर जाती है,
 मैं थक जाती हूं,मैं गिर जाती हूं, मैं उस काले कमरे में धकेली जाती हूं,
 क्योंकि मैं नारी  हूं,
 मैं कली नहीं फुलवारी हूं।



 मैं जब 12 बरस की हो जाती हूं,
 एक परिवर्तन-सा आता है,
 उस परिवर्तन में समाज मुझे ठुकराता है,
 मुझे अछूत समझा जाता है,
 मुझे जमीन पर सोना पड़ता है,
 मुझे रोना पड़ता है, मुझे उन सभी दर्द को ढोना पड़ता है,
 रसोई में जाने पर पाबंदी-सी लग जाती है,
 घर की चार दिवारी में मेरी जिंदगी सिमट कर रह जाती है,  मैं जीती हूं, मैं सफर अकेले करती हूं,                               क्योंकि मैं नारी हूं,
 मैं कली  नहीं फुलवारी हूं।

©Mrigank Shekhar Mishra #Vasant2022
मैं नारी  हूं
मैं कली नहीं फुलवारी हूं,
कहते हो सम्मान करोगे,
 मैं कहती हूं उस अपमान का कब हिसाब करोगे, 
 मैं डरती हूं, मैं उन आंखो से हर रोज गुजरती हूं,
 डर का साम्राज्य पैदा होता है कोई साया पीछा करता है,
मैं डरती हूं, सोचती हूं वह समय कब आएगा, जो मेरा कहलाएगा,
मैं नारी हूं।


मैं जब बाजार निकलती हूं, उन परछाइयों  के बीच से हर रोज गुजरती  हूं,
 मैं डरती हूं, अपने अस्तित्व की लड़ाई में कतरा -कतरा जलती हूं,
मैं उस समाज की तलाश में कुछ दूर निकला करती हूं,
देखती हूं, उन आँखो की साये से पूरा बाजार पटा रहता है,
कोई साया पीछा करता है, मैं डरती, मैं मरती, मैं कतरा -कतरा जलती हूं,
मैं नारी हूं,
 मैं कली  नहीं फुलवारी हूं।



 समाज की उन रूढ़ियों को मैं सहती हूं,
 आकांक्षाओं के उन पहाड़ों को मैं ढोती हूं,
मैं जब चौखट से बाहर निकलती हूं,
 पल्लू की एक दीवार मेरे सामने गिर जाती है,
 मेरी आत्मा तड़प जाती है, वह कहती है,
 समाज की इन असमानताओं को मुझे सहना होगा, मुझे जीना होगा, मुझे मरना होगा
 मैं नारी हूं,
 मैं कली नहीं फुलवारी हूं।


 मैं उस काले जिस्मफरोशी के बाजार में ढकेली जाती हूं,
 मैं तड़पाई जाती हूं, मैं सिसकाई जाती हूं, मैं जगह-जगह से चोटे खाती हूं,
 मैं रोती हूं, फिर अपने आंसुओं को मैं खुद ही पी जाती हूं,
 फिर अगला दिन आता है, मेरी आत्मा को तड़पाया जाता है,
 मैं उस संघर्ष में जुट जाती हूं, मैं चिल्लाती हूं,मैं सिसकती हूं।
 अंत में एक ऐसा समय आता है, मेरी आत्मा मर जाती है,
 मैं थक जाती हूं,मैं गिर जाती हूं, मैं उस काले कमरे में धकेली जाती हूं,
 क्योंकि मैं नारी  हूं,
 मैं कली नहीं फुलवारी हूं।



 मैं जब 12 बरस की हो जाती हूं,
 एक परिवर्तन-सा आता है,
 उस परिवर्तन में समाज मुझे ठुकराता है,
 मुझे अछूत समझा जाता है,
 मुझे जमीन पर सोना पड़ता है,
 मुझे रोना पड़ता है, मुझे उन सभी दर्द को ढोना पड़ता है,
 रसोई में जाने पर पाबंदी-सी लग जाती है,
 घर की चार दिवारी में मेरी जिंदगी सिमट कर रह जाती है,  मैं जीती हूं, मैं सफर अकेले करती हूं,                               क्योंकि मैं नारी हूं,
 मैं कली  नहीं फुलवारी हूं।

©Mrigank Shekhar Mishra #Vasant2022