वो औरो के झूठ को खुद की हकीकत दिखा रहा था , चन्द अश्क़ बहा कर आसमान जमीन को अपना बता रहा था... बड़ा ही अजीब सा रिस्ता था हम दोनों का , में ट्रेन में बैठे मुसाफिर सा था वो हर वक़्त हर मोड़ पर नजारो सा बदलता जा रहा था... ना जाने क्या कमी छोड़ी थी ख़ुदा ने मुझमे , वो मुझे मिटा-मिटा कर कुछ नया सा बना रहा था ... कितना मनहूसियत भरा था ये सफ़र उसका मेरे साथ , क्या मजबूरी थी उसकी जो मेरे साथ बस चले जा रहा था... #सतीश"मिज़ाज़ी" mizazi