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जब से दिवार के कान हो गए, अपने घर के लोग ही मेहमा

 जब से दिवार के कान हो गए,
अपने घर के लोग ही मेहमान हो गए..!

ज़िन्दगी बची न जीने लायक,
रिश्ते जैसे श्मसान हो गए..!

छुप छुप कर सुनते बातें,
लफ्ज़ो से परेशान हो गए..!

जिनके साथ है खून का रिश्ता,
अब खून बहाने को वो तीर-ओ-कमान हो गए..!

ग़ैरों से बचते रहे अपनों को बचाने में,
अपनों के हाथों में हथियार देख हैरान हो गए..!

कभी होते थे खुशियों के जो लाभ,
आज देखो ग़म के नुक़सान हो गए..!

©SHIVA KANT
  #Diwar

#Diwar #Poetry

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