सूरज का आक्रोश है, बिलख रहे तालाब, कुओं, नदी ने छोड़ दी, अब अपनी आस, बन गया आतिश ये, तपे नगर और गांव, जीवन सभी अकुला उठे, ढूंढत रहे हैं छांव, कर सको इतना कर लो, वृक्ष न काटत कोय, धरा ,जल को बचावत लो, सपंदा हमार है ये होय। @@धरती की यही पुकार@@