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क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है ! ( कृपया अनुशीर्ष

क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है !

( कृपया अनुशीर्षक में पढ़े...)



 क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है !

फूलों की घाटी से गुजरते हुए क्यूँ मन के सारे दू:ख दर्द गुम हो जाते है, क्यूँ नदियों की चंचल धारा हमारा मन मोह लेती है, क्यूँ झरनों का शोर भी हमें प्रिय लगने लगता है और क्यूँ पर्वतों के शीर्ष पर झूमते बादल हमें इतना आकर्षित करते है।
होना तो ये चाहिए की प्रकृति हम सबके बीच होनी चाहिए ना की हमें प्रकृति के बीच होना चाहिए। 

हमें हमारा बचपन याद है जब पेड़ के नीचे हमारा अधिकतर समय बितता था। हम गरमी के दिनों में जब विधालय से आते थे तो बस इसी बात का इन्तज़ार होता था की कब किसी पेड़ के आस-पास छाया आये ताकी हम सब बच्चे खेलने निकले। जब आम, जामुन, शहतूत, बरहड़, लीची आदी के पेड़ों पर फ़ल आते थे तब हमारी खुशीयों की कोई सीमा नही होती थी। 
विज्ञान तब भी तरक्की कर रहा था लेकिन फिर भी गाँव तो आखिर गाँव था। 
बहुत दिनों बाद गाँव जाना हुआ...मेरी नज़र हर शय से अपनी बीती हुई यादों को जोड़े जा रही थी। वो शहतूत का पेड़ जो मुझे बहुत प्रिय था, जिसकी कितनी ही शाखायें मैने दातून के लिये तोड़े थे, जिसके इर्द-गिर्द हमने ना जाने कितने खेल खेलें होंगे, जिसके झुरमुट में छुपने की हज़ार कोशिश की थी हमने...आज उसपर चारो ओर से लताएँ फ़ैल चुकी थी। मेरी नज़रे उस अमरूद के पेड़ को ढूँढ रही थी जिसके फलों को बेवक्त तोड़ने पर बहुत डाँट पड़ती थी, वो अब सुख चुका था। मेरा मन घुँटकर रह गया। बचपन में हमारे द्वार ( गाँव में हर एक घर के आगे जो बहुत सारा खाली जगह होता है ) के आगे तरह तरह के फूल खिलते थे। हम आस पास के बच्चे फूलों के पौधों का बहुत ध्यान रखते थे ताकी फूल बड़े-बड़े और बहुत गहरे रंग का खिले। मज़ाल था कोई उन्हें हाथ तक लगा दे। पूजा के लिये अगर जरूरत होती थी तो हम ऐसे-ऐसे फूल चुनकर तोड़ते थे जिसके तोड़े जाने पर पौधे में कोई खास बदलाव ना आ जाये।
क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है !

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 क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है !

फूलों की घाटी से गुजरते हुए क्यूँ मन के सारे दू:ख दर्द गुम हो जाते है, क्यूँ नदियों की चंचल धारा हमारा मन मोह लेती है, क्यूँ झरनों का शोर भी हमें प्रिय लगने लगता है और क्यूँ पर्वतों के शीर्ष पर झूमते बादल हमें इतना आकर्षित करते है।
होना तो ये चाहिए की प्रकृति हम सबके बीच होनी चाहिए ना की हमें प्रकृति के बीच होना चाहिए। 

हमें हमारा बचपन याद है जब पेड़ के नीचे हमारा अधिकतर समय बितता था। हम गरमी के दिनों में जब विधालय से आते थे तो बस इसी बात का इन्तज़ार होता था की कब किसी पेड़ के आस-पास छाया आये ताकी हम सब बच्चे खेलने निकले। जब आम, जामुन, शहतूत, बरहड़, लीची आदी के पेड़ों पर फ़ल आते थे तब हमारी खुशीयों की कोई सीमा नही होती थी। 
विज्ञान तब भी तरक्की कर रहा था लेकिन फिर भी गाँव तो आखिर गाँव था। 
बहुत दिनों बाद गाँव जाना हुआ...मेरी नज़र हर शय से अपनी बीती हुई यादों को जोड़े जा रही थी। वो शहतूत का पेड़ जो मुझे बहुत प्रिय था, जिसकी कितनी ही शाखायें मैने दातून के लिये तोड़े थे, जिसके इर्द-गिर्द हमने ना जाने कितने खेल खेलें होंगे, जिसके झुरमुट में छुपने की हज़ार कोशिश की थी हमने...आज उसपर चारो ओर से लताएँ फ़ैल चुकी थी। मेरी नज़रे उस अमरूद के पेड़ को ढूँढ रही थी जिसके फलों को बेवक्त तोड़ने पर बहुत डाँट पड़ती थी, वो अब सुख चुका था। मेरा मन घुँटकर रह गया। बचपन में हमारे द्वार ( गाँव में हर एक घर के आगे जो बहुत सारा खाली जगह होता है ) के आगे तरह तरह के फूल खिलते थे। हम आस पास के बच्चे फूलों के पौधों का बहुत ध्यान रखते थे ताकी फूल बड़े-बड़े और बहुत गहरे रंग का खिले। मज़ाल था कोई उन्हें हाथ तक लगा दे। पूजा के लिये अगर जरूरत होती थी तो हम ऐसे-ऐसे फूल चुनकर तोड़ते थे जिसके तोड़े जाने पर पौधे में कोई खास बदलाव ना आ जाये।

क्या विज्ञान की यहीं तरक्की है ! फूलों की घाटी से गुजरते हुए क्यूँ मन के सारे दू:ख दर्द गुम हो जाते है, क्यूँ नदियों की चंचल धारा हमारा मन मोह लेती है, क्यूँ झरनों का शोर भी हमें प्रिय लगने लगता है और क्यूँ पर्वतों के शीर्ष पर झूमते बादल हमें इतना आकर्षित करते है। होना तो ये चाहिए की प्रकृति हम सबके बीच होनी चाहिए ना की हमें प्रकृति के बीच होना चाहिए। हमें हमारा बचपन याद है जब पेड़ के नीचे हमारा अधिकतर समय बितता था। हम गरमी के दिनों में जब विधालय से आते थे तो बस इसी बात का इन्तज़ार होता था की कब किसी पेड़ के आस-पास छाया आये ताकी हम सब बच्चे खेलने निकले। जब आम, जामुन, शहतूत, बरहड़, लीची आदी के पेड़ों पर फ़ल आते थे तब हमारी खुशीयों की कोई सीमा नही होती थी। विज्ञान तब भी तरक्की कर रहा था लेकिन फिर भी गाँव तो आखिर गाँव था। बहुत दिनों बाद गाँव जाना हुआ...मेरी नज़र हर शय से अपनी बीती हुई यादों को जोड़े जा रही थी। वो शहतूत का पेड़ जो मुझे बहुत प्रिय था, जिसकी कितनी ही शाखायें मैने दातून के लिये तोड़े थे, जिसके इर्द-गिर्द हमने ना जाने कितने खेल खेलें होंगे, जिसके झुरमुट में छुपने की हज़ार कोशिश की थी हमने...आज उसपर चारो ओर से लताएँ फ़ैल चुकी थी। मेरी नज़रे उस अमरूद के पेड़ को ढूँढ रही थी जिसके फलों को बेवक्त तोड़ने पर बहुत डाँट पड़ती थी, वो अब सुख चुका था। मेरा मन घुँटकर रह गया। बचपन में हमारे द्वार ( गाँव में हर एक घर के आगे जो बहुत सारा खाली जगह होता है ) के आगे तरह तरह के फूल खिलते थे। हम आस पास के बच्चे फूलों के पौधों का बहुत ध्यान रखते थे ताकी फूल बड़े-बड़े और बहुत गहरे रंग का खिले। मज़ाल था कोई उन्हें हाथ तक लगा दे। पूजा के लिये अगर जरूरत होती थी तो हम ऐसे-ऐसे फूल चुनकर तोड़ते थे जिसके तोड़े जाने पर पौधे में कोई खास बदलाव ना आ जाये।