मैं बहुत डरती हूँ उस पल से नहीं ,मैं किसी सुनामी या भूकंप से नहीं डर रही ना मुझे डर है यम का ना मैं डरती हूँ इस पृथ्वी के, इस ब्रह्मांड के नष्ट हो जाने से ये नदी,यह नाले,यह पर्वत सब आफ़त बन टूट पड़े मेरे ऊपर। वज्रपात हो जाए इन पहाड़ों का मेरे ऊपर रेगिस्तान की धूल में मिल जाऊँ मैं कहाँ डरती हूँ भला इनसे हो जाऊँ मैं निश्वास सूख जाए मेरे भीतर का प्राण हो जाने दो मुझे चेतना शून्य। मेरा डर है केवल उस दिन के लिए , जब हो जाएँगी मेरी सारी कल्पनाएँ ख़त्म। मेरा भय है केवल, उस दिन के लिए जब; मेरे पास शब्द नहीं होंगे मेरी अंतिम कविता के लिए। मैं बहुत डरती हूँ उस पल से नहीं मैं किसी सुनामी या भूकंप से नहीं डर रही ना मुझे डर है यम का मुझे तुमसे बिछड़ने का भी डर कहाँ सताता है ना मैं डरती हूँ इस पृथ्वी के, इस ब्रह्मांड के नष्ट हो जाने से