मतलबी दुनियां हो गई, हर रिश्ता मतलब का होकर रह गया है। कोई हंसकर रिश्ता निभा लेता, तो कोई टूट कर बिखर जाता है। मुखौटे पहनकर रहते सभी रिश्ते, कोई लगाव न बाकी रह गया है। अपने बनकर पीठ पर छुरा भोंक देते, बस छलावा ही रह गया है। अपनों के बीच में रहकर हम भी, फिकर अपनों की करते रहते हैं। कभी दिल से निभाते सारे ही रिश्ते, कहीं केवल दिखावा करते हैं। ज्यादा फिक्र करो, तो भी लोगों को बंदिश नजर आने लगती है। ना करो या कम करो, तो भी लोगों को शिकायत होने लगती है। जब तक जरूरत होती है आपकी, अपने भी साथ निभाते रहते हैं। चाहे करते हो आप, कितनी ही फिक्र अपनों की हमेशा साथ रहकर। कोई मिल जाए आप से बेहतर, तो बिन सोचे छोड़ कर चल देते हैं। करो चाहे दिल से जितने भी काम, लोगों को दिखावा ही लगता है। फिक्र अपनों की भी उतनी ही करनी चाहिए जितनी जरूरत हो। जरूरत से ज्यादा हो जाये फिक्र तो लोग, उसे आदत बना लेते हैं। बिता दी अपनी सारी जिंदगी, हमने अपनों की फिकर करते-करते। लोग हमारी फिक्र को खुदगर्जी का नाम देकर, तोहमत लगा देते हैं। #फ़िकर_अपनों_की*_team_alfaz #new_challenge There is new challenge of poem/2 line/4 line in whatsapp group *Theme- *फ़िकर अपनों की* Any writer can write anything but *remember the rule*