लुप्त सामर्थ्य
अपने आप को उस दिए कि तरहं महसूस करते हैं जो अभी जला नहीं है। जो ईंधन से भरपूर है, शायद कुछ छलक भी रहा हो। और एक श्वेत बत्ती है, जो, लगभग, अपनी पूरी लंबाई में तेल के भीतर डूबी हुई है, लबालब । सिवाय, दीपक के मूहं के बाहर वाले हिस्से पर । जहां ईंधन, कोशिका क्रिया के फल स्वरूप, चढ़ा तो सही किन्तु छोर तक पहुंच नहीं पाया। दिया, अनदेखी में, रात भर बाहर छोड़ दिया गया था और वायु मै बसे पाले ने उसके सिरे को भिगो दिया है। दीपक अब जल नहीं पा रहा है और भय यह है कि अगर उसे सुखने के लिए धूप में छोड़ा तो कहीं ईंधन भी भाप बन कर उड़ ना जाए। अगर एक रात पहले, काश, कोई उस बत्ती की शुष्क नोक को भी तेल में डूबो देता तो हमारे इर्द-गिर्द आज ये तमस न छाया रहता।
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