मर्तबा दो चार ही उनसे मुलाकातें हुईं लफ्ज़ थे खामोश... बस ऐसे ही कुछ बातें हुईं अक़्स जो नज़रों से उभरा कब वो पहुंचा दिल तलक या खुद कैसे मेरे दिल से ये नादानी हुयी मुट्ठियों में रेत की मानिंद कुछ हसरत जो थीं खुलते बंद होते लबों की सनसनी से उड़ गयीं अब दवा का फायदा क्या, मर्ज़ जब सीने में है लग गया नश्तर जो फिर, क्या मज़ा जीने में है