चलते चलते नज़र पड़ी, पड़ी एक इमारत पे जिसकी पेशानी पे आशियाना, लिखा था इबारत में दिल में ख़याल आया, क्यों ना आशियाना देखा जाए आशियाने की तारीफ में, कुछ तो लिखा जाए जैसे ही कदम रखे, आशियाने की दहलीज पे दिल हाथों में आ गया, मानो पासीज के आशियाने में सभी ही, उम्रदराज़ थे कुछ बेबस कुछ लाचार, तो कुछ बेआवाज़ थे हाल पूछने पर, सबका एक ही फसाना था हर उम्रदराज का अपना, हो चुका बेगाना था फज़ूल समान जैसे यहाँ, सबको सबके छोड़ गये थे जिन्हे बनाने के लिए, की इन्हों ने मेहनत वो ही इन्हे तोड़ गये थे बुझते चिरगों से, सभी जल बुझ रहे थे साँसें रुकने पे थी आमादा, पर अश्क ना रुक रहे थे कुछ होके गमज़दा, कुछ खुदा से खफा तो कुछ इंसानियत से शरामशार, मैं निकला उस इमारत से चलते चलते नज़र पड़ी थी, जिस इमारत पे जिसकी पेशानी पे आशियाना, लिखा था इबारत में old age home