जीवनयात्रा: 'शरीर' को जीवनभर 'मन' ने जितना चाहा दौड़ाया, 'आत्मा' की आज्ञा तो कभी सुनी ही नहीं गयी।। 'बुद्धि' ने 'मन' के गलत निर्णयों के विरुद्ध हर बार बोला, किन्तु 'मन' और 'इंद्रियों' के बहुमत से उसकी ध्वनि दब गई।। घर, समाज के बड़ों, बुजुर्गों ने कितना समझाया, किन्तु अहंकार की आग ने वो सब 'राय' जला दी।। जीवन के दशक चुटकियों में निकलते गये, 'मन' ने कभी भी 'समय' से 'भेंट' न होने दी।। स्वयं ही स्वयं की एक विचित्र व छद्म दुनियाँ गढ़ ली 'चित्त' ने, 'नींव' इतनी क्षीणकाय कि सदैव हिलती रही।। क्यों न हो विछोह? आखिर, ऐसे दुष्ट संगी साथियों से, आत्मा चुप भले रही पर रूठती चली गयी।। थकते शरीर से अब 'मन' का मन भी भर गया है, वो पर्दे के पीछे कहीं जा के दुबक गया है।। उसकी बनाई 'भ्रामक' दुनियाँ भी ढह गई है, जीवन का 'उद्देश्य' संभवतया 'कुछ' भी नहीं था, तभी तो एक 'कमीं' जीवनभर अन्दर से खटखटाती रही, आज द्वार खोल उससे बात की तो पूछ रही थी, क्यों चाहिए था मनुष्य जीवन तुमको? यही सब में लिप्त रहना था तो अन्य योनि ही ठीक हैं... आत्मा अब कुछ राय नहीं दे रही... बस रह-रह के यही मानस उभर रहा है.. कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ ©Tara Chandra #जीवनयात्रा