तुम यलगार लिखते हो में श्रृंगार लिखता हूँ तुम प्रहार लिखते हो मैं उपसंहार लिखता हूँ तुम क्रुद्ध युगों युगों से चीखते हिंसक वेदना में मैं प्रकृति को विधान मान कर बहार लिखता हूँ शब्दों को विन्यास में सजा कर बस रख देता मैं विश्वपटल पर बात के माइने हज़ार लिखता हूँ विवादों के बंजर सूखे रेगिस्तानों से दूर विचरता धधक रहे धरातलों पर वर्षा का आभार लिखता हूँ पारदर्शी शीशे सा आरपार सा दिख जाए चित्त ऐसा प्रेम लिखता हूँ मैं प्रेम के व्यवहार लिखता हूँ . तुम यलगार लिखते हो मैं श्रृंगार लिखता हूँ . धीर श्रृंगार