मौसम पर कोहरे का रंग चढ़ जाता, सूरज मद्धम सा होने लगता। ठंडक अपनी दस्तक दे देती, तन मन में आलस्य सा भरने लगता। मौसम में ठिठुरन सी बढ़ने लगती, सूरज भी अस्ताचल होने लगता। सर्द सी दोपहर की भीनी कुनकुनाती धूप में मन चंचल होने लगता। शमशीर सा लगने लगता, हवा का झोंका जब तन मन को छूने लगता। बादल संग आंख मिचोली करती, कभी छुप जाती, कभी दिखती धूप। धूप लगने लगती, नई नवेली दुल्हन सी शर्मीली मन को भाने लगती। पकड़ के रखते पास अपने, जब जी चाहता जी भरकर सेक लेते धूप। सब हैं राह तकते रहते, कब आएगी उनके आंगन और छत पर धूप। सर्द सी दोपहर में गर्मी का अहसास कराती, सोये अरमां जगाती धूप। कभी पास रहकर अहसास कराती, कभी दूर रहकर बेचैनियां बढ़ाती। कभी रजाइयों को उढवाती, तो कभी शाल स्वेटर से ही काम चलवाती। कभी चाय की चुस्की लगती, कभी पकौड़े, कभी मटर की घुघरी बनवाती। कभी गीले कपड़ों को सुखवाती, कभी अलाव जलाकर आलू भुनवाती। कभी महबूब का इंतजार करवाती, कभी मोहब्बत के फूल खिलवाती। कभी रंग बिरंगे नजारे दिखलाती, कभी तन्हाइयों से आंखें चार करवाती। -"Ek Soch" #सर्द_सी_दोपहर_team_alfaz #new_challenge *Theme- सर्द सी दोपहर* There is new challenge of poem/2 line/4 line in whatsapp group (link in bio)