दरिया का सारा नशा उतरता चला गया, मुझको डुबोया और मैं उभरता चला गया। वो पैरवी तो झूठ की करता चला गया, लेकिन बस उसका चेहरा उतरता चला गया। हर सांस उम्रभर किसी मरहम से कम ना थी, मै जैसे कोई जख्म था भरता चला गया। हद से बड़ी उड़ान ख्वाहिश की तो यूं लगा, जैसे कोई मेरे परो को कतरता चला गया। मंजिल समझ के बैठ गए जिनको चंद लोग, मै उन रास्तों से गुजरता चला गया। अति सुंदर ग़ज़ल