तुम घड़ी हो वक्त की, मैं मुसाफिर लंबे सफर का। तुम दिलाती याद मंजिल की, मैं बार-बार मुड़कर भूल जाता, हाल खुद का।। तुम यादों की महफिल सजाए बैठी, मैं उसमें डूब जाता। ख़्याल जब आता तुम्हारा, इल्जाम मुझ पर ही,वक्त डाल जाता।। गुनाह तुम्हारा नहीं, ईमानदारी से फर्ज तुम हो निभाती। मैं ही अपनी राह भटक कर, गुमनामी में आदत मेरी भटकाती।। उलझ उलझ कर उलझ बैठा, रखता रहा ख़्याल जमाने का। तुम घड़ी हो वक्त की, मैं मुसाफिर लंबे सफर का.... ©Yogendra Nath #alarmclock#तुम घड़ी हो