वो तुम ही थी माँ... रोता था जब भी मैं चुप न कराता था कोई मेरे आँसुओं को पोंछना वाली वो तुम ही थी माँ... जब भी अकेला होता था मैं भीड़ में भी होता न था कोई उस भीड़ में भी मेरा हाथ पकड़ने वाली वो तुम ही थी माँ... झूठी मुस्कान हुआ करती थीं जो दिखती ज़माने को मेरी उन हसीं के पिछे ग़म को देखने वाली वो तुम ही थी माँ... डाटते थे जो पापा मुझे समझाने मुझे आजाती थी डाट से मुझे बचाने के लिए वो तुम ही थी माँ... मेरे ग़मो को मैं ही जानता था गुमसुम रहा करता था मैं उन ग़मो को महसूस करने वाली वो तुम ही थी माँ... क़ोशिश मेरी थी मंज़िल पाने की मेरे हर ख़्वाबों को पूरा करने में मेरे हौसंलों को बढ़ाने वाली वो तुम ही थी माँ... ©KaviRp My Poem on WOMEN'S DAY DEDICATED TO MY MOM.