मैंने अपनी तलवार अपने बगल में रख दी थी और किनारे खड़ा होकर ही सामने चलते युद्ध को देखने लगा, मन ही मन अपने को शाबासी दे रहा था कि कितना समझदार हूँ मैं अच्छा ही किया जो किनारे हो लिया इतनी विकराल चुनौती से सामना क्यों ही किया जाए, ये जो लड़ रहे हैं इनको भी तो समझाया था मैंने पर इनको न जाने अपनी किस तैयारी का भरोसा था चल दिए लड़ने, वो देखो गिर गए न घायल होके अब होश ठिकाने आएंगे, अब समझ आएगा कोई भी ऐसा वैसा इस चुनौती से पर नहीं पा सकता, अरे ये क्या ये तो फिर उठ खड़े हुए , अपने को साफ करते हुए अपने घावों पर पट्टी बांधते हुए एक दूसरे को हौसला देते हुए और अपनी पुरानी गलतियों से सीखते हुए इन्होंने तो फिर से तलवार उठा युद्ध शुरू कर दिया है, अरे ये निरा मूर्ख मालूम पड़ते हैं देखा नही इन्होंने की इनके कितने साथी भाग खड़े हुए फिर भी ये लड़ते जाते हैं, इन्हें अपने आस पास कुछ दिखाई क्यों नही देता क्या? नही सुनाई देते इनको कोई उलाहने? और अगर देता है दिखलाई और सुनाई तो ये कैसे गिर कर उठ जाते हैं दोगुने उत्साह से ? मैं किनारे खड़ा यही सब सोच रहा था पर में ये नहीं जानता था कि जो लड़ रहे वो जीत ही जायेंगे ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता था पर मैंने हथियार रखकर अपनी हार जरूर सुनिश्चित कर ली थी, क्योंकि जीतने की पहली शर्त है कि आपको लड़ना पड़ता है, हां मैं सुरक्षित जरूर था उस युद्ध से दूर होकर मगर उसी तरह जैसे नाव होती है नदी के किनारे पर सुरक्षित, नाव नही बनी है नदी के किनारे पर सुरक्षित खड़े होने के लिए वो बनी है गहने पानी में चलने के लिए तूफानों से भिड़ने के लिए, किनारे खड़ी नाव सुरक्षित जरूर है पर उसमे जीवन नही है। #संघर्ष#जीवन