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#OpenPoetry मरुस्थल सफेद किरमिची चादर सा दिखता मर

#OpenPoetry मरुस्थल

सफेद किरमिची चादर सा दिखता मरुस्थल,
भोर की बेला जैसा कितना शान्त और शीतल ,
मैं चली जा रही हूँ ,
कभी न मिलने वाले बिछडे साथी की खोज में ,
ज्यों भटकता रहता है हिरण अपने गर्भ में छिपी कस्तूरी की खोज में ।
कांटे बिंधे पैरों से , जख्मी तन लिए , 
आंसुओं से तर-बतर चेहरा -
ऐसे ढूँढ़ता है अपने प्राण को,
जैसे निष्प्राण सा पागल अन्त समय में प्राणवायु ढूंढता है ,
क्या मिल सका है कभी ,खोया हुआ ,इस अनन्त फैली मरुभूमि में ।
असंख्य हादसों की कब्रगाह बन कर कैसे शान्त हो तुम ,
अब तो बता कहाँ है मेरा राही , तू इतना कठोर मत बन -
देख आंख वीरान हैं ,जिस्म  वेजान है ,शब्द पथरा गये ।
सोचा था मेरे हृदय की चित्कार के दर्द को तू सह न पायेगा ,
भूल थी मेरी ,कहां मैने आंसू बहाए ,
अरे मरू तू तो  म-रु-स्थल है कहां तुझमे संवेदनाएं ।
थक गयी हूं अब , लहू  रिसते घावों का दर्द सह नहीं सकती ,
विश्रान्त दे दे मुझे , अपनी स्पन्दन हीन निशान्त गोद में ,
कि पहुँच जाऊँ मैं अपने प्रिय के पास ।
भोर बिना  *उषा* का क्या  अस्तित्व ।
बस अब सो जाऊं , जहाँ से  फिर  कभी उठ न सकूं 
चिरंतन काल तक ,
दरकती  खिसकती रेत में ,
लुप्त हो गयी  खुशियों की तरह ।। खुशियों से विहीन मरुस्थल
#OpenPoetry मरुस्थल

सफेद किरमिची चादर सा दिखता मरुस्थल,
भोर की बेला जैसा कितना शान्त और शीतल ,
मैं चली जा रही हूँ ,
कभी न मिलने वाले बिछडे साथी की खोज में ,
ज्यों भटकता रहता है हिरण अपने गर्भ में छिपी कस्तूरी की खोज में ।
कांटे बिंधे पैरों से , जख्मी तन लिए , 
आंसुओं से तर-बतर चेहरा -
ऐसे ढूँढ़ता है अपने प्राण को,
जैसे निष्प्राण सा पागल अन्त समय में प्राणवायु ढूंढता है ,
क्या मिल सका है कभी ,खोया हुआ ,इस अनन्त फैली मरुभूमि में ।
असंख्य हादसों की कब्रगाह बन कर कैसे शान्त हो तुम ,
अब तो बता कहाँ है मेरा राही , तू इतना कठोर मत बन -
देख आंख वीरान हैं ,जिस्म  वेजान है ,शब्द पथरा गये ।
सोचा था मेरे हृदय की चित्कार के दर्द को तू सह न पायेगा ,
भूल थी मेरी ,कहां मैने आंसू बहाए ,
अरे मरू तू तो  म-रु-स्थल है कहां तुझमे संवेदनाएं ।
थक गयी हूं अब , लहू  रिसते घावों का दर्द सह नहीं सकती ,
विश्रान्त दे दे मुझे , अपनी स्पन्दन हीन निशान्त गोद में ,
कि पहुँच जाऊँ मैं अपने प्रिय के पास ।
भोर बिना  *उषा* का क्या  अस्तित्व ।
बस अब सो जाऊं , जहाँ से  फिर  कभी उठ न सकूं 
चिरंतन काल तक ,
दरकती  खिसकती रेत में ,
लुप्त हो गयी  खुशियों की तरह ।। खुशियों से विहीन मरुस्थल

खुशियों से विहीन मरुस्थल #कविता #OpenPoetry