युग- युगांतर से मौन सारे , मेरे मन के मरुस्थल पे। है। नहीं साहस किंचित ,अधरों तक भी आ सके। पीड़ा के वो सारे कलेवर अब उतारे जाँएगे। कागज़ के खालीपन पे स्याही से उभारे जाँएगे । न स्वप्न के प्रलोभन ,न वो बेज़ार किस्से सब कष्ट भूलाए जाँएगे । मेघ सा हो मन, किंचित नेन नीर न बहाएंगे। ---© सुमीर भाटी युग- युगांतर से मौन सारे , मेरे मन के मरुस्थल पे। है। नहीं साहस किंचित ,अधरों तक भी आ सके। पीड़ा के वो सारे कलेवर अब उतारे जाँएगे। कागज़ के खालीपन पे स्याही से उभारे जाँएगे । न स्वप्न के प्रलोभन ,न वो बेज़ार किस्से सब कष्ट भूलाए जाँएगे ।