मैं काग़ज़ की कश्ती, उम्मीद में बहती जाती हूँ, जाने कब डूब जाऊँ... फिर भी बढ़ती जाती हूँ। हालात की नमी, कहीं छीन ना ले ये वजूद मेरा, धीमी कर रफ़्तार, पीछे न छोड़ दे ये वदूद मेरा। वक़्त के थपेड़ों से डर के मानूँगी ना कभी हार, मुझे भी मिलेगा साहिल, ख़त्म होगा इन्तज़ार। ये हवाएँ, ये फ़िज़ाएँ भी देंगी मुश्किलों में साथ, इतना तो है विश्वास, रब छोड़ेगा ना कभी हाथ। वक़्त-बेवक़्त हौसलों का करती जाती हूँ ज़िक्र, छोड़कर ना-उम्मीदियाँ, चली जाती हूँ बे-फ़िक्र। वदूद- दोस्त Rest Zone 'मेल-मिलाप' "मैं काग़ज़ की कश्ती...... .... चली जाती हूँ बेफ़िक्र।"