ख़ूबसूरत रामदरश मिश्र » बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे, खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे। किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे। जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर, वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे। पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे। न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला, पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे। गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया, गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे। ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था, उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे। मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी, मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे। विनोद कुमार गिरि