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उपन्यास विश्वासघात लेखिका मीनाक्षी

               उपन्यास विश्वासघात 
लेखिका मीनाक्षी शुक्ला 
उपलब्धता :-  योरकोट, प्रतिलिपि

बिहार की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया यह उपन्यास बिहार  से होते हुए आपको दिल्ली जैसे महानगर कोलकाता तमिलनाडु सब जगह की सैर कराता है...और आप इन शहरों में ही नहीं उपन्यास के हर भाग को पढ़ने के बाद अपने आसपास और अपने परिवेश से गुजरने लगते हैं... उपन्यास की कहानी 2 महिलाओं के जीवन पर चलती है पहले कौशल्या और फिर उसकी बेटी जानकी...जानकी मुख्य किरदार है  जिसमें स्वाभिमान कूट कूट कर भरा हुआ है आमतौर पर कहानियों की नायिका की तरह वह दिखने में हद से ज्यादा खूबसूरत तो नहीं बस ठीक-ठाक है मगर जानकी की पहचान चेहरा कम और उसका व्यक्तित्व ज्यादा है। माँ की बीमारी पर सारे घर को अकेले संभालती जानकी कि ज़िंदगी जिन रास्तों से होकर गुज़रती है वहाँ लेखिका महोदया आपको भी उँगली पकड़ कर ले जाती है और आप इतने लालची हो जाते हैं की अंत तक उँगली पकड़े रहते हैं , उँगली छूट जाने पर भी कई समय बाद उँगली का स्पर्श आपके हृदय पर रहता है और आप कहानी से बाहर नहीं आ पाते...उपन्यास को इतने बेहतरीन तरीके से लिखा गया है कि आप उन भावों को सीधे गृहण कर सकते हैं जो शब्दों के रूप में लिखे गए हैं... ग्रामीण परिवेश, रीति रिवाज, शादी ब्याह इन सब को विस्तृत रूप से लिखा गया है..जानकी मुख्य किरदार है तो यह ज़ाहिर बात है कि वह प्रभावित करेगी ही लेकिन साथ ही कौशल्या का किरदार भी अपनी छाप छोड़ जाता है।खासकर उन पंक्तियों में मुझे कौशल्या की बेचारगी नज़र आती है जब वह अपने मरे हुए भाई की पत्नी को पहली बार देखती है और अपने भाई से मिलने की जिद करती है ।ज़िंदगी में इंसान के साथ ऐसा भी होता है जैसा कौशल्या के साथ हुआ उसने अपने भाई की मौत का खुद को ही जिम्मेदार माना...एक  महिला किरदार जो मुझे खासा पसंद आया वह सरिता मामी का है जो कौशल्या की दोस्त भी है और सच्ची वाली दोस्त है सच्ची शब्द पर ज्यादा जोर इसलिए दिया गया है क्योंकि सरिता एक भाभी की हैसियत से ज्यादा एक दोस्त की भूमिका को कौशल्या के जीवन में निभाती है...

जानकी के पिता से ना जाने मेरी क्या रंजिश है इस बात से लेखिका महोदया भी अवगत है मुझे जानकी के पिता का किरदार पहले बहुत बेकार सा लगा था शायद इस कारण कि मैं कौशल्या  से सहानुभूति रखती थी और मुझे जानकी के पिता का जानकी की माता से किया जाने वाला व्यवहार पसंद नहीं आया। हालाँकि कहानी के बाद के भागों में जानकी के पिता ने सचमुच एक पिता का फर्ज निभाया। मुक्ता खासा अच्छा किरदार है टर्निंग प्वाइंट कह सकते हैं इस किरदार को  इससे मुझे सहानुभूति भी है  क्रुद्ध भी हूँ पर फिर भी इससे परेशानी नहीं जैसी है स्वीकार्य है वो कहानी में अपनी छाप  छोड़ने का पूरा प्रयास करती है । सुमित्रा जी के क्या कहने शानदार किरदार था वैम्प टाइप.. उधर जानकी के ससुर का अपना अलग व्यक्तित्व है  पत्नी से दबने वाले तो कभी सीधे कह देने वाले।
               उपन्यास विश्वासघात 
लेखिका मीनाक्षी शुक्ला 
उपलब्धता :-  योरकोट, प्रतिलिपि

बिहार की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया यह उपन्यास बिहार  से होते हुए आपको दिल्ली जैसे महानगर कोलकाता तमिलनाडु सब जगह की सैर कराता है...और आप इन शहरों में ही नहीं उपन्यास के हर भाग को पढ़ने के बाद अपने आसपास और अपने परिवेश से गुजरने लगते हैं... उपन्यास की कहानी 2 महिलाओं के जीवन पर चलती है पहले कौशल्या और फिर उसकी बेटी जानकी...जानकी मुख्य किरदार है  जिसमें स्वाभिमान कूट कूट कर भरा हुआ है आमतौर पर कहानियों की नायिका की तरह वह दिखने में हद से ज्यादा खूबसूरत तो नहीं बस ठीक-ठाक है मगर जानकी की पहचान चेहरा कम और उसका व्यक्तित्व ज्यादा है। माँ की बीमारी पर सारे घर को अकेले संभालती जानकी कि ज़िंदगी जिन रास्तों से होकर गुज़रती है वहाँ लेखिका महोदया आपको भी उँगली पकड़ कर ले जाती है और आप इतने लालची हो जाते हैं की अंत तक उँगली पकड़े रहते हैं , उँगली छूट जाने पर भी कई समय बाद उँगली का स्पर्श आपके हृदय पर रहता है और आप कहानी से बाहर नहीं आ पाते...उपन्यास को इतने बेहतरीन तरीके से लिखा गया है कि आप उन भावों को सीधे गृहण कर सकते हैं जो शब्दों के रूप में लिखे गए हैं... ग्रामीण परिवेश, रीति रिवाज, शादी ब्याह इन सब को विस्तृत रूप से लिखा गया है..जानकी मुख्य किरदार है तो यह ज़ाहिर बात है कि वह प्रभावित करेगी ही लेकिन साथ ही कौशल्या का किरदार भी अपनी छाप छोड़ जाता है।खासकर उन पंक्तियों में मुझे कौशल्या की बेचारगी नज़र आती है जब वह अपने मरे हुए भाई की पत्नी को पहली बार देखती है और अपने भाई से मिलने की जिद करती है ।ज़िंदगी में इंसान के साथ ऐसा भी होता है जैसा कौशल्या के साथ हुआ उसने अपने भाई की मौत का खुद को ही जिम्मेदार माना...एक  महिला किरदार जो मुझे खासा पसंद आया वह सरिता मामी का है जो कौशल्या की दोस्त भी है और सच्ची वाली दोस्त है सच्ची शब्द पर ज्यादा जोर इसलिए दिया गया है क्योंकि सरिता एक भाभी की हैसियत से ज्यादा एक दोस्त की भूमिका को कौशल्या के जीवन में निभाती है...

जानकी के पिता से ना जाने मेरी क्या रंजिश है इस बात से लेखिका महोदया भी अवगत है मुझे जानकी के पिता का किरदार पहले बहुत बेकार सा लगा था शायद इस कारण कि मैं कौशल्या  से सहानुभूति रखती थी और मुझे जानकी के पिता का जानकी की माता से किया जाने वाला व्यवहार पसंद नहीं आया। हालाँकि कहानी के बाद के भागों में जानकी के पिता ने सचमुच एक पिता का फर्ज निभाया। मुक्ता खासा अच्छा किरदार है टर्निंग प्वाइंट कह सकते हैं इस किरदार को  इससे मुझे सहानुभूति भी है  क्रुद्ध भी हूँ पर फिर भी इससे परेशानी नहीं जैसी है स्वीकार्य है वो कहानी में अपनी छाप  छोड़ने का पूरा प्रयास करती है । सुमित्रा जी के क्या कहने शानदार किरदार था वैम्प टाइप.. उधर जानकी के ससुर का अपना अलग व्यक्तित्व है  पत्नी से दबने वाले तो कभी सीधे कह देने वाले।