एक प्रबल इच्छा थी मेरी, मान जाते ईश गर। स्वर्ग में स्थापित होता, एक बड़ा सा डाकघर।। पत्र लिखकर मैं बुला लेता, स्वयं परमात्मा। उनसे करता मैं निवेदन, कक्षा ले जाओ यहां।। सब तो पथ भटके हुए हैं, दम्भ है और जोश है। सत्य से वंचित से क्यों हैं, व्यर्थ का आक्रोश है।। बंट गए हैं जाति मजहब, में भटकते आदमी। सत्य झुटलाये हुए हैं, हे! खुदा दो रोशनी।। मजहबों में बांटकर, आखिर मनुज को क्या मिला? कर रहा है मारा-मारी, आदमी का काफिला। आप आकर सबको, सिखला देते जीने की कला। स्वर्ग में एक डाकघर, होता तो हो जाता भला।। इति नहीं। अनेक अनेक धन्यवाद। ©bhishma pratap singh #स्वर्गमेंएकडाकघर#हिन्दी कविता#काव्य संकलन#भीष्म प्रताप सिंह#प्रेरक कहानियां #WorldPostOfficeDay#अक्टूबर creator